सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:बुद्धदेव.djvu/९४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

(१०) मार-विजय सत्ता येन ससागरा वसुमती रत्नान्यथानेकशः प्रासादाच गवाक्षहर्मिकवरा युग्माश्च यानानि च । व्योमालंकृत पुष्पदाम रुचिरा उद्यानकूपाः समा हस्तापादशिरोत्तमांगनयनः सो बोधिमंडे स्थितः। जब गौतम बुद्ध बोधिवृक्ष के नीचे आसन लगाकर समाधि में बैठे, तब उस समय उनके चित्त में अनेक प्रकार के संकल्य- विकल्प उत्पन्न हुए और उनकी समाधि में अनेक प्रकार की बाधाएँ पड़ीं। योग-शास्त्र के देखने से ज्ञात होता है कि योगी को योगा- नुष्टान में अनेक प्रकार की आपत्तियाँ पड़ती हैं जिन्हें योग शास्त्र- वालों ने अंतरा के नाम से लिखा है। इन आपत्तियों को सहन कर और धैर्य धारण कर समाधि सिद्ध करना और उसके अवां- तर संप्रज्ञात असंप्रज्ञात आदि भेदों को चंचलता-रहित हो साक्षात् कर निर्बीज समाधि तक पहुँचना हो साधक का परम कर्तव्य माना गया है। मन को एकाग्र करना साधारण काम नहीं है। गीता में कहा है- असंशय महावाहो मनोदुनिग्रहः चलम् । अभ्यासेनतु कौतय वैराग्येणं च गृह्यते १ च्याविस्वाननंशपत्रमादावालस्वाविरनिनांविदर्शननालब्धभूमिकल्या. नयस्थितत्यानि पितविवेपास्तरायाः । यो० १३०