पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/१०२

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बड़ी चाह सोँ आई कूदति मेरे नेरे;
रुचि सोँ लागी चाटन हाँफत तन को मेरे।
चली संग लै मोहिँ गर्व सोँ सो पुनि गरजति
तिन सब्र बाघन बीच कढ़ति जिनको मार्योँ हति।
योँ मेरे सँग प्रेमगर्व सोँ वनहिं सिधाई।
जन्म मरण को चक्र रहत घूमत योँ, भाई!




या भाँति सुंदरि कुँवरि को लहि कुँवर मन आनँद छयो।
शुभ लग्न उत्तम धरि गई जब मेष को दिनकर भयो।
सब ब्याह के सुप्रबुद्ध के घर साज बाज रचे गए।
छायो गयो मंडप कलित, तोरण रुचिर बँधिगे नए।

अब द्वार पै सब होत मंगलचार नाना भाँति हैं।
दरसाति भीर अपार औ गज वाजि की बहु पाँति हैं।
लै खील फेँकति हैं अटारिन पै चढ़ी पुर नागरी,
कल कंठ सोँ जिनके कढ़ै धुनि परम कोमल रस भरी।

मन मुदित वर कन्या वरासन पै विराजत आय हैं।
मधुपर्क, कंगन आदि की सब रीति जाति पुराय हैं।
औ ग्रंथिबंधन भाँवरी के होत पूर्ण विधान हैं।
ऋषि मंत्र बैठे पढ़त हैं, सब विप्र पावत दान हैं।