कुँवर पूछ्यो "कहा, याही गति सबै की होय,
मिलत अथवा कहूँ ऐसो एक सौ में कोय?"
कह्यो छंदक "सबै याही दशा में दरसायँ,
जियत एते दिनन लौँ जो जगत में रहि जायँ।"
फेरि बूझत कुँवर "जो एते दिनन पर्यंत
रहैं जीवित हमहुँ है हैं कहा ऐसे अंत?
जियति अस्सी वर्ष लौं जो चली गोपा जाय,
जरा वाहू को कहा याँ घेरि लै है आय?
और गंगा गौतमी जो सखी परम प्रवीन,
होयह वेहू कहा या भाँति जर्जर छीन?"
दियो उत्तर सारथी "हाँ, अवसि, हे नरराय!"
कह्यो गजकुमार "बस, अब देहु रथहि घुमाय।
चलौ घर की ओर लै अब माहिँ बेगि, सुजान!
आजु देख्योँ रह्यो जाको नाहिं कछु अनुमान।"
आयो फिरि सिद्धार्थ कुँवर निज भवन ताहि छन
सोचत यह सब उदासीन, अत्यंत खिन्नमन।
गए विविध पकवान और फल सम्मुख लाए;
छूयो नहिं, नहिं लख्यो, रह्यो निज सीस नवाए।
निपुण नर्त्तकी बिलमावन की रहीं जतन करि
किंतु रह्यो सो मौन, कछू सोचत उसास भरि।
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