पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/१२५

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पुनि लखत स्वप्न पंचम नरेश;
नग और नगर बिच जो प्रदेश
तहँ वज्रदंड लै के कुमार
करि रह्यो दुंदुभी पै प्रहार।
घननाद सरिस धुनि कढ़ति घोर,
घहराति गगन में चहूँ ओर।
अब छठौँ स्वप्न याँ लखत भूप
पुर बीच धौरहर है अनूप;
नभ के ऊपर जो उठत जात,
घनमंडित मंडपसिर लखात;
बसि जापै दोऊ कर उठाय
रह्यो कुँवर रत्न इत उत लुटाय।
मणि मानिक बरसत आय आय,
सिगरो जग लूटत धाय धाय।
पे स्वप्न सातवें में सुनात
अति आर्त्त नाद दिशि दिशि समात।
छः पुरुष ढाँपि मुख लखि प्रभात
करि करि विलाप हैं भगे जात।

भूपति के मन इन स्वप्नन की शंका छाई;
जिनको फल नहिं वाको कोऊ सक्यो बताई।