इंशा की 'ठेठ हिंदी की कहानी' तक में बराबर मिलता है। इकज(=एक ही) तो शुद्ध मारवाड़ी और गुजराती है।
काव्य की यह भाषा बहुत प्राचीन काल में बन चुकी थी। यही हिंदी की काव्यभाषा का पूर्वरूप है। ढाँचा पच्छिमी होने पर भी यह काव्य की सामान्य भाषा थी जिसका प्रचार सारे उत्तरापथ में था। इसका प्रमाण इसी बात से मिलता है कि प्राकृतों के समान इममें देशभंद करने की आवश्यकता नहीं समझी गई। प्राकृत व्याकरणों में जिसका उल्लेख अपभ्रंश के नाम से हुआ है काव्य- भाषा के रूप में उसका प्रचार व्रज,मारवाड़ और गुजरात तक ही नहीं था एक प्रकार से सारे उत्तरीय भारत में था। इम व्यापकत्व के लिए यह आवश्यक था कि उसमें अवध आदि मध्यदेश के शब्द और रूप भी कुछ मिलें। जिन स्थानों में ऊपर दिए हुए उदाहरण हैं उन्हीं में ऐसे रूपांतरों के भी उदाहरण हैं जो अवधी और खड़ो बोली का आभास देते हैं
(११) नव जल भरिया मग्गड़ा गयणि धड़कइ मेह इत्थंतरि जरि प्राविसिइ तउ जाणीसिइ नेहु।
(१२) कसुकरु रे पुत्त कलत्तधी,कसुकरू रेकरसण बाड़ी ?
(१३) सइ,सउ खंगारिहि प्राणकइ बइसानर होमीइ।
(११) नए जल से भरा हुआ रास्ता,गगन में मेघ धड़कता है। इस अंतर में जो (तू) आएगा तो तेरा नेह जाना जायगा।
(१२) किस का रे पुत्र कलन और कन्या,किसकी रे खेती बारी?
(१३) (मैं) सती खेगार के साथ प्राण को वैश्वानर में होमती हूँ।