पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/१४५

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सित मर्मर की छत पै सुंदर पच्चीकारी,
रंग रंग के नग जड़ि के जो गई सँवारी।
विविध वर्ण की बनी बेलबूटी मन मोहति।
कटी झरोखन बीच चित्रमय जाली सोहति,
जिनसों खिली चमेलिन को सौरभ है आवत
चँद्रकिरण, शीतल समीर को संग पुरावत।
भीतर सुषमा लसति नवल दंपति की भारी-
शाक्य कुँवर है बसत, लसति गोपा छविवारी।


यशोधरा उठि परी नींद सोँ कछु अकुलाई,
उर सोँ अंचल सरकि रह्यो कटि सोँ लपटाई।
रहि रहि लेति उसास, हाथ भौँहन पै फेरति,
भरे विलोचन वारि चाहि निज पिय दिशि हेरति।
तीन बार कर चूमि कुँवर को बोली सिसकति
"उठौ, नाथ! मो को बचनन साँ सुखी करौ अति।"
कह्यो कुँवर "है कहा? प्रिये! मोहिं कही बुझाई।"
पै सिसकति सो रही, बात मुख पै नहिँ आई।
पुनि बोली "हे नाथ! गर्भ में शिशु जो मेरे
सोचति ताकी बात सोय मैं गई सबेरे।
लखे भयानक स्वप्न तीन मैं अति सुखघाती,
करिकै जिनको ध्यान अजहुँ लौँ धरकति छाती।