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कहत योँ "ह्वे ऊर्णदायिनि जननि! जनि घबराय,
देत हौँ पहुँचाय याको जहाँ लौँ तू जाय।
पशुहु की इक पीर हरिबो गुनत होँ मैं आज
योग औ तपसाधना सोँ अधिक शुभ को काज।"
बढ़ि चरावनहार दिशि प्रभु बहुरि बूझी बात
"जात ऐसी धूप मे कित लिए इनको, भ्रात?"
दियो उत्तर सबन "आज्ञा मिली है यह आज,
मेष अज सौ बीछि कै लै चलौ बलि के काज।
देवपूजन राति करिहैं महाराजधिराज।
होत हैं या हेतु नृप के भवन नाना साज।"
"चलत हमहूँ" बोलि याँ प्रभु चले धीरज लाय
धूप में वा संग तिनके पशुहि गोद उठाय।
स्वेदकणिका धूरि छाए भाल पै दरसाति;
लगी पाछे जाति रहि रहि भेड़ सो मिमियाति।
किसा गोतमी
चलत यों सब जाय पहुँचे एक सरिता-तीर।
मिली तरुणी एक खंजननयन धारे नीर।