पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/१९०

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षष्ठ सर्ग


तपश्चर्य्या

जहँ बोधि-ज्योति प्रकाश भइ सो थल विलोकन चाहिए
तो चलि 'सहस्राराम' सॉ वायव्य दिशि को जाइए।
करि पार गंग कछार पाव पहार पै धरिए वही
जासोँ निकसि नीरंजना की पातरी धारा बही।

अब होत ताके तीर चकरे पात के महुअन तरे,
हिंगोट औ अंकोट की झाड़ीन को मारग धरे,
पटपरन में कढ़ि जाइए जहँ फल्गु फोरि नगावली
चपती चटानन बीच पहुँचति है गया की शुभथली।

बलुए पहारन और टीलन सोँ जड़ो सुषमा भरो
उरुविल्व को ऊसर कटीलो दूर लौँ फैलो परो।
लहरात ताके छोर पै बन परत एक लखाय है
अति लहलहे तृण सोँ रही तल भूमि जाकी छाय है।

जुरि कतहुँ सोतन को विमल जल लसत धीर गभीर है;
जहँ अरुण, नील, सरोज ढिग वक सारसन की भीर है।
कछु दूर पै दरसात ताड़न बीच छप्पर फूस के,
जहँ कृषक 'सेनग्राम' के सुखनी सोवत हैं थके।