पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/२१७

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मिलि परस्पर विपुल विश्वविधान में दै योग
ओसकण उडुगण दमकि निज करत पूरा भोग।
मरन हित जो मनुज जीयत, मरत पावन हेत
जन्म उत्तम, चलै सो यदि धर्मपथ पग देत,

रहै कल्मषहीन, सब संकल्प दृढ़ ह्वै जायँ;
बड़े छोटे जहाँ लौँ भवभोग करत लखायँ
करै तिनको पथ सुगम नहिँ कबहुँ बाधा देय,
लोक में परलोक में सब भाँति यों यश लेय।

लख्यो चौथे पहर प्रभु पुनि 'दुःखसत्य' महान्
पाप सोँ मिलि घोर कटु जो करत विश्वविधान;
चलति भाथी माहिँ जैसे सीड़ लगि लगि जाय
जाति दहकति आगि जासोँ बार बार झँवाय।

'आर्य्य सत्यन' माहिँ जो यह 'दुःखसत्य' प्रधान,
पाय तासु निदान देख्यो ध्यान में भगवान
दुःख छायारूप लाग्यो रहत जीवन संग,
जहाँ जीवन तहाँ सोऊ रहत काहू ढंग।

छुटै सो नहिँ कबहुँ जौ लौँ छुटै जीवन नाहिँ
निज दशान समेत पलटति रहति जो पल माहिँ-