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पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/२२५

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सप्तम सर्ग


कपिलवस्तु-गमन

इन बहु वर्षन बीच बसत नरपति शुद्धोदन
पुत्र विरह में शाक्य नायकन बीच खिन्न मन।
पियवियोग में यशोधरा दुख के दिन पूरति,
छाँड़ि सकल सुख भोग सोग में परी बिसूरति।
ढोर लिए जो कंजर थल थल डोलनहारे,
लाभ हेतु जो देश देश घूमत बनिजारे
तिनसोँ काहू यती विरागी की सुधि पावत
नरपति दूत अनेक तहाँ तुरतहि दौरावत।
ते फिरि आवत, कहत बात बहु साधुन केरी
जो तजि कै घरबार बसत निर्जन थल हेरी।
पै लायो संवाद नाहि कोउ ताको प्यारो
कपिलवस्तु के राजवंश को जो उजियारो,
भूपति की सारी आशा को एक सहारो,
यशोधरा के प्राणन को धन सर्वस प्यारो;
कहाँ कहाँ जो भूलो भटको घूमत ह्वैहै
भयो और को और, चीन्हि नहिं कोऊ पैहै।