पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/२२८

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नलिनमय वा पुलिन पै दोउ रहे बसि कछु काल।
हँसत फेंकत जात मीनन और मोदक बाल।
बैठि दुखिया जगनि निरखति उड़त हँसन ओर,
करति विनय उसास भरि, धरि नीर दृग की कोर-

"हे गगनचर! होय जहँ पिय कढ़ौ जो तहँ जाय,
दीजियो संदेस मेरो ताहि नेकु सुनाय।
दरस हित औ परस हित अति तरसि बहु दुख पाय
दीन हीन यशोधरा अब मरन ढिग गइ आय।"

बिहँसि बोलीं अनुचरी बहु आय एते माहिँ
"देवि! अब लौं सुन्यो यह संवाद कैधौं नाहिँ?
त्रपुष, भल्लिक नाम के द्वै सेठ माल लदाय
आज दक्षिण नगरतोरण पास उतरे आय।

दूर देशन फिरत सागरकंठ लौं जे जात
लिए नाना वस्तु जो हैं संग में दरसात-
स्वर्णखचित अमोल अंबर, रत्नजटित कटार,
पात्र चित्र विचित्र, मृगमद, अगर, कुंकुमभार।

किंतु ये सब वस्तु जाके सामने कछु नाहिँ,
परम प्रिय संवाद लाए आज सो पुर माहिँ।