पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/२६२

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जानिबो एतो बहुत-भू स्वर्ग आदिक धाम
सकल माया दृश्य हैं, सब रूप हैं परिणाम।
रहत घूमत चक्र यह श्रमदुःखपूर्ण अपार,
थामि जाको सकत कोऊ नाहिँ काहुँ प्रकार।

बंदना जनि करौ, ह्वैहै कछु न वा तम माहिँ;
शून्य सोँ कछु याचना जनि करौ, सुनिहै नाहिँ।
मरौ जनि पचि और हू मन ताप आप बढ़ाय
क्लेश नाना भाँति के दै व्यर्थ तनहिं तपाय।

चहौ कछु असमर्थ देवन सोँ न भेंट चढ़ाय
स्तवन करि बहु भाँति, बेदिन बीच रक्त बहाय।
आप अंतस् माहिं खोजौ मुक्ति को तुम द्वार।
तुम बनावत आप अपने हेतु कारागार।

शक्ति तुम्हरे हाथ देवन सोँ कछु कम नाहिँ।
देव, नर, पशु आदि जेते जीव लोकन माहिँ
कर्मवश सब रहत भरमत बहत यह भवभार,
लहत सुख औ सहत दुख निज कर्म के अनुसार।

गयो जो ह्वै, वाहि सोँ उत्पन्न जो अब होत,
होयहै जो खरो खोटो सोउ ताको गोत।