( ३३ ) कन्हैया ( कन्हाई+आ ); पूरबी या अवधी-करेजवा, बद- रवा, सुगना, बिधना । ऐसे शब्द न तो ओकारांत होते हैं और न कारकचिह्न लगने के पहले उनका रूप एकारांत होता है। उ०—(क) क्यों हँसि हेरि हरसो हियरा अरु क्यों हित कै चित चाह बढ़ाई ?-घनानंद (ख) वहै हँसि दैन हियरा तें न टरत है।--धनानंद (ग) जान मेरे जियरा बनी को कैसो मोल है। -घनानंद (घ) बदरा बरसैं ऋतु में घिरि के, नित ही अँखियाँ उघरी बरसैं ।-घनानंद। (च) बारि फुहार भरे बदरा सोइ सोहत कुंजर से मतवारे। -श्रीधर पाठक। (छ) हे बिधना ! तो साँ अँचरा पसारि माँगा जनम जनम दीजो याही व्रज बसिबो ।-छीत स्वामी । (ज) जैहै जो भूषन काहू तिया को तो मोल छला के लला न बिकैहो । रसखान । (झ) कुच दुंदन को पहिराय हरा मुख साँधी सुरा महका- वति हैं। श्रीधर पाठक (२) बूझिहैं चबैया तब कहाँ कहा, दैया ! इत पारि गो को, मैया ! मेरी सेज पै कन्हैया को।–पदमाकर । कारक के कुछ चिह्न भी ब्रजभाषा के निजके हैं-
- ऐसे शब्दों की बहार रहीम के "बरवै नायिकाभेद" में देखिए
जो अवधी या पूरबी भाषा में है।