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पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/४८

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। ( ३६) ब्रजभाषा से पूरबी की अपेक्षा कुछ अधिक मिलती है अयोध्या और गोंडे के आसपास जो भाषा बोली जाती है वह पूरबी या शुद्ध अवधी है। लखनऊ, कानपुर से लेकर कन्नौज के पास तक जो भाषा बोली जाती है वह पच्छिमी अवधी है जिसके अंतर्गत बैसवाड़ी है। कन्नौज और इटावे के पास पहुँचते पहुँचते यह भाषा ब्रजभाषा से यहाँ तक मिल जाती है कि ओकारांत रूप भी आ जाते हैं। तीन सर्वनाम ऐसे हैं जिन्हें पकड़ने से दोनों के स्थान का पता बहुत जल्दी लग सकता है। खड़ी बोली के 'कौन' 'जो' और 'वह' के हमें अवधी के क्षेत्र के भीतर ही दो दो रूप मिलते हैं-'को', 'जो', 'सो' और 'के', 'जे', 'से', या 'ते' । पच्छिमी अवधी में हमें 'को', 'जो', 'सो', मिलेंगे और पूरबी में 'के', 'जे', 'से,या । 'ते' । जैसे, पच्छिमी–को आय ? ; पूरबी-के है ? = कौन है ? पच्छिमी-'जो जइहै सो पइहै' ; पूरबी-'जे जाई से पाई। - जो जायगा वह पाएगा। 'को, जो, सो' शौरसेनीपन है और 'के, जे, से' मागधी या अर्द्धमागधीपन । 'को , 'जो', 'सो' के कारकचिह्नग्राही रूप ब्रजभाषा के समान क्रमशः 'का', 'जा', 'ता' होंग-जैसे काकर, जाकर, वाकर ( पर 'कर' के योग में पच्छिमी अवधी.मैं भी पूरबी का रूप रहता है जैसे 'कहि केर'), तासन । पर 'के', 'जे', 'से', के रूप सामान्य विभक्ति (हि) के साथ कारकचिह्न लगने पर भी नहीं बदलते, जैसे, केहिकर ( या केकर ), जेहि महँ %3D