पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/६२

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(५३ ) मंद मंद गति साँ गयंद गति खोने लगी, बोने लगी विष सो अलक अहि छोने सी। लंक नवला की कुच भारन दुनौने लगी, होने लगी तनु की चटक चारु सोने सी। तिरछी चितानि में बिनोदनि बितौने लगी, लगी मृदु बातन सुधारस निचोने सी ।-दास । ( खड़ी, गॅवारों के मुँह की) बिहारी ने चलती ब्रजभाषा का ध्यान बहुत रखा है। उनकी भाषा बहुत सुंदर है। पर पूरबी या अवधी प्रयोग उनकी सतसई में भी हैं- (१) किती न गोकुल कुलवधू काहि न केइ सिख दीन ? (२) नूतन विधि हेमंत ऋतु जगत जुराफा कीन । (३) देखि परे याँ जानिबी दामिनि धन अँधियार । (४) त्याँ त्याँ निपट उदार हू फगुआ देत बनै न (ब्रज रूप 'फाग' है) इसी प्रकार बिहारी का 'सोनकिरवा' शब्द भी नितांत पूरबी है। शायद ग्राम्यत्व प्रदर्शित करने के लिए बिहारी यह शब्द लाए हाँ। पर ग्राम पूरब में ही नहीं होते, पच्छिम में भी होते हैं। दास के भाषालक्षण के अनुसार कवियों ने 'खुस- बोयन', 'दराज' आदि द्वारा भाषा कविता को गँवारू सा बना दिया । ब्रजभाषा का कोई व्याकरण न होने से तथा अशिष्ट और अशिक्षित लोगों के कवित्त सवैया कह चलने से वाक्यर- चना और भी अव्यवस्थित तथा भाषा और भी बिना ठीक ठिकाने की हो गई। कवियों का ध्यान भाषा के सौष्ठव और सफ़ाई