पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/७८

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खैंचि लीनो निठुर शर करि यत्न बारंबार।
घाव पै धरि जड़ी बूटी किया बहु उपचार।
देखिबे हित पीर कैसी होति लागे तीर
लियो कुँवर धंसाय सो शर आप खोलि शरीर।

चौंकि सो चट पर्यौ पीरा परी दारुण जानि;
छाय नयनन नीर खग पै लग्यो फेरन पानि!

पास ताके एक सेवक तुरत बोल्यो आय
"अबै मेरे कुँवर ने है हंस दियो गिराय।

गिर्यो पाटल बीच बिधि कै ठौर पै सो याहि।
मिलै मोको, प्रभो! मेरो कुँवर माँगत ताहि।"
बात ताकी सुनत बोल्यो तुरत राजकुमार
"जाय कै कहि देहु दैहौँ नाहिँ काहु प्रकार।

मरत जो खग अवसि पावत ताहि मारनहार;
जियत है जब तासु तापै नाहिँ कछु अधिकार।
दियो मेरे बंधु ने बस तासु गति को मारि
रही जो इन श्वेत पंखन की उठावनहारि।"

देवदत्त कुमार बोल्यो "जियै वा मरि जाय,
होत पंछी तासु है जो देत वाहि गिराय।
नाहिं काहू को रह्यो जो लौँ रह्यो नभ माहिँ;
गिरि पर्यो तब भयो मेरो, देत हौ क्यौँ नाहिँ?"