पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/८१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(१७)

लदे कलियान औ फूलन सोँ कचनार रहे कहुँ डार नवाय।
भरो जहँ नीर धरा रस भीजि के दीनी है दूब की गोट चढ़ाय।
रह्यो कलगान विहंगन को अति मोद भरो चहुँ ओर सोँ आय।
कढ़ैं लघु जंतु अनेक, भगैं पुनि पास की झाड़िन को झहराय।

डोलत हैं बहु भृंग पतंग सरीसृप मंगल मोद मनाय।
भागत झाड़िन सोँ कढ़ि तीतर पास कहूँ कछु आहट पाय।
बागन के फल पै कहुँ कीर हैं भागत चोँच चलाय चलाय।
धावत हैं धरिबे हित कीटन चाष घनी चित चाह चढ़ाय।

कूकि उठे कबहूँ कल कंठ सोँ कोकिल कानन में रस नाय।
गीध गिरैं छिति पै कछु देखत, चील रहीं नभ में मँडराय।
श्यामल रेख धरे तन पै इत सोँ उत दौरि कै जाति गिलाय।
निर्मल ताल के तीर कहूँ बक बैठे हैं मीन पै ध्यान लगाय।

चित्रित मंदिर पै चढ़ि मोर रह्यो निज चित्रित पंख दिखाय।
व्याह के बाजन बाजन की धुनि दूर के गाँव में देति सुनाय।
वस्तुन सोँ सब शांति समृद्धि रही बहु रूपन में दरसाय।
देखि इतो सुख-साज कुमार रह्यो हिय में अति ही हरखाय।

सूक्ष्म रूप सोँ पै वाने कीनो विचार जब
देखे जीवन कुसुम बीच कारे कंटक तब।
कैसो दीन किसान पसीनो अपनो गारत।
केवल जीयन हेतु कठिन श्रम करत न हारत।