पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/९२

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(२८)

शस्त्रकला में परै निपुणता ताहि दिखावन
तिन सब सोँ बढ़ि जो जो चाहैं ताको पावन।
नृपगण हू बिपरीत रीति नहिं सकैं चलाई।
कह्यो कुँवरि को पिता "नृपति सोँ बोलै जाई
दूर दूर के राजकुँवर हैं चाहत याको;
सब सो जो बढ़ि सकै कुँवर तो देहौँ ताको।
अस्त्र शस्त्र हयचालन में यदि सोँ बढ़ि जैहै,
वासोँ बढ़ि कै और कहाँ बर कोऊ पैहै?
पै देखत हौँ ढीले ढंगन को वाके जब
कैसे आशा करौं होयहै वासों यह सब?"

भयो भूप अति दुखी लग्या सोचन मन माहीं-
"चहत कुँवर है यशोधरा को, संशय नाहीं।
कौन धनुर्धर नागदत्त सो पै बढ़ि मरिहै?
हय चालन में अर्जुन सम्मुग्व कोन ठहरिहै?
खड्ग युद्ध में वीर नंद सो बढ़ि काकी गति?"
सोचि सोचि महिपाल भयो मन में उदास अति।
देखि दशा यह बिहँसि कुँवर बोल्यो सुखकारी
"सुनौ तात! ये सकल कला हैं सिखी हमारी।
करौ घोषणा तुरत, भिड़े मो सोँ जो चाहै
इन सब खेलन माहिँ; सोच की बात कहा है?
नेह विफल करि कुँवरि हाथ साँ जान न दैहौँ।