बुद्ध और बौद्ध धर्म २०. 1 " करना, विशेषतः जब कि वह बहुत-से साधुओं को प्राण-दण्ड दे चुका था, सामान्य बात न थी। आर्य-धर्म के अनुसार जो लोग साधु-सन्यासी होते थे, बे प्रायः बन में रहते थे या देशाटन किया करते थे, परन्तु बौद्ध और जैन-काल में यह प्रथा चल पड़ी कि साधु लोग विहारों या मठों में रहा करें। पहले इन मठों में वर्षा के चार महीनों में ही रहने की प्रथा थी, परन्तु पीछे से कुछ साधु प्रायः बारहों महीने रहने लगे। एक-एक मठ में सहस्रों साधुओं के लिए प्रवन्ध रहता था, इतने साधुओं के साथ रहने के कारण बहुत-से नियमोपनियम वन गये, साधु-वर्ग का बल और प्रभाव भी बढ़ गया, मठाधीशों का अधिकार और प्रभाव भी बढ़ गया । एक नियत स्थान में रहने के कारण साधुओं का जीवन पहले की भांति कष्टमय नहीं रह गया । धीरे-धीरे यह प्रथा इतनी प्रबल होगई कि आर्य-धर्म का पुनरुद्धार करते समय शङ्कराचार्य ने भी इसे बौद्ध-धर्म से लेकर अपने सन्या- सियों के लिए प्रचलित कर दिया। उस समय इससे लाभ भी बहुत था, पर इसी का यह प्रसाद है कि आज दिन देश में लाखों निकम्मे, आलसो, स्वाँगी साधु बनकर विषय-भोग कर रहे हैं- 'तपसी धनवन्त, दरिद गृही। जिस समाज की आर्थिक दशा जितनी ही उन्नत होगी, उतनी ही उसकी आवश्यकताओं का विस्तार होगा । और, उन श्राव- श्यकताओं को पूरा करने के लिए उतने ही अधिक प्रकार के लोग उसमें पायेंगे । बौद्ध-काल में निम्नलिखित पेशेवालों का भिन्न-
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