२११ महान् बुद्ध सम्राट अशोक ऐसे नगरों में मुसलमानी स्नानागारों को छोड़कर अच स्नानागार ही नहीं रहे । परन्तु प्राचीन काल में प्रायः सभी देशों में सार्व- जनिक स्नानागार होते थे। इनसे सामान्य स्नान के अतिरिक्त शरीर को और भी कई प्रकार के लाभ होते थे। भारतीय स्नानागार दो प्रकार के होते थे-एक खुले, दूसरे बन्द । खुले स्नानागार तो बड़े-बड़े तालाब थे, जिनके चारों और सुन्दर पक्के घाट बने रहते थे । ऐस तालाब तो आजकल भी बहुत हैं, पर बन्द स्नानागारों की प्रथा उठ गई । बन्द स्नानागार ऊँची जगह बनते थे। इनके बनाने में ईंट या पत्थर से काम लिया जाता था। चारों ओर बरामदा होता था, जिसमें बाहर की ओर अँगला लगा रहता था । भीतर तीन प्रधान कोठरियाँ होती थीं। इनकी दीवारों के नीचे का भाग तो ईंटों का होता था, शेप लकड़ी का । इस लकड़ी को चर्म से ढंककर ऊपर से पलस्तर कर देते थे। पहले कमरे में लोग वस्त्रादि उतारकर बीच के कमरे में जाते थे। यहाँ दीवारों से लगकर बैठने के स्थान बने होते थे और बीच में आग जलती रहती थी। यह गरम वायु से स्नान था, बीच-बीच में न्हाने वालों पर गरम जल छोड़ा जाता था। जब भली भांति पसीना आ जाता, तब शरीर खूब मला जाता था । मलने के पीछे लोग तीसरे कमरे में जाते थे, जहाँ एक कुण्ड रहता था, इस कुण्ड के में स्नान करके स्नान-क्रिया समाप्त होती थी। आजकल जिस 'टर्किशबाथ' की इतनी धूम है, वह इसका रूपान्तर है। सम्भव है, तुर्कों ने यह भारत से ही सीखा हो। - जल
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