पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/११४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

बृहदारण्यकोपनिषद् स० अस्मात् , हि, एव, आत्मनः, यत् , यत् , कामयते, तत्, तत् , सृजते॥ अन्वय-पदार्थ । तत्-वही । एतत् यह । ब्रह्म-ब्राह्मण । क्षत्रम्-क्षत्रिय । विट्-वैश्य । शूद्रः शूद्र । + चातुर्वर्ण्यम्-चार वर्ण हैं। तत्- वही ब्रह्म । देवेषु-देवताओं में । अग्निना एव-अग्निरूप करके । ब्रह्म-ब्रह्मा । अभवत्-होता भया । + सः वही । मनुष्येषु मनुष्यों में । + ब्राह्मण-ब्राह्मण । + अभवत्-होता भया । + एवम् इसी तरह । क्षत्रियेण-क्षन्निय करके । क्षत्रियः क्षत्रिय । वैश्येन वैश्य करके । वैश्यः वैश्य । शूद्रेण शूद्र करके । शुद्रः शूद्र । + अभवत् होता भया । तस्मात्-इस- लिये । देवेषु-देवताओं के मध्य । अग्नी-अग्नि विपे । एव ही । + याज्ञिकाम् यज्ञ करनेवाले । लोकम्-कर्म-फल की। इच्छन्ते इच्छा करते हैं । हि-क्योंकि । मनुप्येषु मनुष्यों के मध्य । ब्रह्म-ब्रह्म । एताभ्याम्-इनहीं यानी । रूपाभ्याम् यज्ञ कर्म का कर्ता और यज्ञ कर्म का अधिकरणरूप अग्नि करके ही ! ब्राह्मण-ब्राह्मण । अभवत्-होता भया । अथ-और । या जो । ह वै-निश्चय करके । स्वम्-अपने । लोकम्-मात्मा को ! अदृष्ट्वा न जानकर । अस्मात्-इस । लोकात्-लोक से । प्रैति-फॅच कर जाता है । सः वह । अविदितः अज्ञानी । एनम्-अपने प्रात्मानन्द को । न-नहीं । भुनक्ति प्राप्त होता है। यथा वा-जैसे । अननुक्तः गुरु से न पढ़ा हुश्रा । वेदः वेद । +ने+भुनक्ति कर्म के फल को नहीं देता है । वा-अथवा ।

  • यथा जैसे । अकृतम्-नहीं की हुई । कर्म-खेती। +न

+ फलम् नहीं फल को । + भुनक्ति-देती है । यत्-जिस कारण । इह-इस लोक में । अनेवंवित-अपने प्रात्मा का न