पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/१५७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अध्याय १ ब्राह्मण ५ मन्त्रः ११ दिवश्चनमादित्याच देवं मन आविशति तदै दैवं मनो येनाऽऽजन्येव भवत्यथो न शोचति ।। पदच्छेदः। दिवः, च, एनम् , आदित्यात्, च, दैवम् , मनः, आवि- शति, तत्, वै, दैवम् , मनः, येन, श्रानन्दी, एव, भवति, अयो, न, शोचति ॥ अन्वय-पदार्थ । + यदा-जब । देवम् दैवीशक्लियुक्त । मनः मन । दिवः आकाश के अंश से पृथक् । च=ौर । प्रादित्यात्-सूर्य के अंश से पृथक् । च-भी । + भूखा होकर । एनम्-इस कृतकृत्य पुरुप विपे । श्राविशति-प्रवेश करता है। + तदा तव । तत्- वह । वै-निश्चय करके । देवम् दैवीशक्तियुक्त । मना-मन है। येन-जिस करके । + पुरुषः-पुरुप । एवम्अवश्य । शानन्दी- धानन्दित । भवति होता है । श्रथ-और । न शोचति-सोच नहीं करता है। भावार्थ । हे सौम्य ! जब दैवीशक्तियुक्त मन आकाश और सूर्य के अंश को त्याग करके इस कृतकृत्य पुरुष में प्रवेश करता है तब वही निश्चय करके दैवीशक्तियुक्त मन है जिस करके पुरुष आनन्दित होता है और शोक नहीं करता है ।। १६ ।। मंन्त्रः २० अद्भयश्चैनं चन्द्रमसश्च दैवः प्राण आविशति स वै दैवः प्राणो यः. संचरश्चासंचरश्च न व्यथतेऽथो न