बृहदारण्यकोपनिपद् स० पृथिवी, न, वेद, यस्य, पृथिवी, शरीरम् , यः, पृथिवीम् , • अन्तरः, यमयति, एपः, ते, आत्मा, अन्तर्यामी, अमृतः ॥ अन्वय-पदार्थ। यःजो। पृथिव्याम्-पृथ्वी में। तिष्ठन् स्थित है।+याजो। पृथिव्याः-पृथ्वी के । अन्तरःघाहर है । यम्-जिसको। पृथिवी-पृथ्वी । न-नहीं। वेद-जानती है। यस्य-जिसका। शरीरम्-शरीर । पृथिवी-पृथ्वी है । यःमो । अन्तर:-पृथ्वी के बाहर भीतर रहकर । पृथिवीम्-पृथ्वी को। यमयति-स्व व्यापार में लगाकर शासन करता है। एपः वही। ते-तेरा । अमृतः मरणधर्मरहित । प्रात्माम्यात्मा अन्तर्यामी अन्तर्यामी है। भावार्थ। याज्ञवल्क्य महाराज कहते हैं कि, हे गौतम ! जो पृथ्वी में रहता हुआ वर्तमान है वही अन्तर्यामी है, गौतम कहते हैं याज्ञ- वल्क्य ! पृथ्वी में तो सब पदार्थ रहते हैं क्या सवही अन्तर्यामी हैं ? याज्ञवल्क्य कहते हैं, हे गौतम ! ऐसा नहीं, जो पृथ्वी के अन्तर है, जो पृथ्वी के बाहर है, जो पृथ्वी के ऊपर है, जो पृथ्वी के नीचे है, जिसको पृथ्वी नहीं जानती है, जो पृथ्वी को जानता है, जिसका पृथ्वी शरीर है, जो पृथ्वी के बाहर भीतर रहकर पृथ्वी को उसके व्यापार में लगाता है और जो अविनाशी है, निर्विकार है, और जो तुम्हारा और सबका आत्मा है, वही है गौतम ! अन्तर्यामी है ॥ ३ ॥ . . योऽप्सु तिष्ठन्नद्भयोऽन्तरों यमापो न विदुर्यस्यापः शरीरं योऽपोन्तरो यमयत्येष त श्रात्माऽन्तर्याम्यमृतः॥ .
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