1 ३४४ बृहदारण्यकोपनिषद् स० अन्वय-पदार्थ। या जो। श्रादित्ये-सूर्य में। तिष्ठन् =स्थित है । +य:-जो। आदित्यात्-सूर्य के । अन्तरम् बाहर है। यम्-जिसको। आदित्य-सूर्य । न-नहीं । वेद-मानता है । यस्य-जिसका। शरीरम् शरीर । श्रादित्यः सूर्य है । यःो । अन्तरः सूर्य के भीतर रहकर । श्रादित्यम् -सूर्य को । यमयति-नियमबर करता है। एपावही । ते-तेरा। अमृता अविनाशा । श्रात्मा: मात्मा। अन्तर्यामी-अन्तर्यामी है भावार्थ । जो आदित्य के भीतर बाहर रहकर स्थित रहता है, जिसको श्रादित्य नहीं जानता है, जो प्रादित्य को जानता है, जिसका शरीर आदित्य है, जो आदित्य के भीतर वाहर रहकर आदित्य को शासन करता है, और जो अविनाशी आपका आत्मा है, यही वह अन्तर्यामी है ॥६॥ मन्त्रः १० यो दिनु तिष्ठन्दिग्भ्योऽन्तरो यं दिशो न विदुर्यस्य दिशः शरीरं यो दिशोऽन्तरो यमत्येप त आत्माऽन्त- म्यमृतः॥ पदच्छेदः। यः, दिक्षु, तिष्ठन्, दिग्भ्यः, अन्तरः, यम् , दिशः, न, विदुः, यस्य, दिशः, शरीरम् , यः, दिशः, अन्तरः, यमयति, एषः, ते, आत्मा, अन्तर्यामी, श्रमृतः ॥ अन्वय-पदार्थ। या जो। दितु-दिशानों में । तिष्ठन्-स्थित है । याजो ।
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