अध्याय ३ ब्राह्मण ७ ३५५ मन । नन्नहीं । वेद% जानता है । यस्य:जिसका । शरीरम् शरीर । मना-मन है । यःजो । अन्तर:-मन में रह कर । मना-मन को । यमयति-नियमबद्ध करता है। एषः वही । ते-तेरा । अमृतः अविनाशी । आत्मा-श्रात्मा । अन्तर्यामी अन्तर्यामी है। भावार्थ। जो मन के बाहर भीतर स्थित है, जिसको मन नहीं जानता है, जो मन को जानता है, जिसका शरीर मन है, जो मन के भीतर वाहर रह कर मन को शासन करता है, जो आपका आत्मा है, जो अमृत-स्वरूप है, यही वह अन्तर्यामी है ॥ २० ॥ मन्त्र: २१ यस्त्वचि तिष्टचस्त्वचोऽन्तरो यं त्वङ् न वेद यस्य त्वक् शरीरं यस्त्वचमन्तरो यमयत्येप त आत्मान्तर्या- म्यमृतः ॥ पदच्छेदः । यः, त्वचि, तिष्ठन् , त्वचः, अन्तरः, यम् , त्वक्, न, वेद, यस्य, वक्, शरीरम् , यः, त्वचम्, अन्तरः, यमयति, एपः, ते, आत्मा, अन्तर्यामी, अमृतः ॥ अन्वय-पदार्थ। या जो । त्वचि-त्वचा में । तिष्ठन् स्थित है। + यःजो। त्वचा त्वचा के । अन्तरसम्बाहर है। यम्-जिसको। स्वक स्वचा । न-नहीं । वेद-जानती है । यस्य-जिसका । शरीरम् शरीर । त्वक्=त्वचा है । यः-जो। अन्तर: स्वचा में रह कर ।
पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/३६९
दिखावट