पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/४२२

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४०८ वृहदारण्यकोपनिषद् स० किम्-क्या । ब्रह्मनल को। विद्वान इनि-यापनं जानते हुये कहा है।+ याज्ञवल्क्यान्यासयलय ने 1 + श्राह-उत्तर दिया कि। यत्-जैसे । + त्यम्-नम । सदेवाः देवता माहित सप्रतिष्ठाः-स्थान सहित । दिशा-दिसानों को। वन्य-जानने हो । ता: उन्हीं। दिशा-दिशाओं को। साँचा:देयना महिन। सप्रतिष्ठा स्थान सहित । अहम् में । वेद इतिमानता हूं। भावार्थ । शाकल्य कहते हैं, हे याज्ञवल्क्य ! श्रापन कुरुपनाल के ब्रह्मवादियों को कहा है कि ये सब बामण स्वयं उरकर तुमको अँगीठी बना रखा है, यदि श्राप ब्रह्मवेत्ता है तो यह आपका निरादर सहनीय है, यदि आप ब्रह्मवेत्ता नहीं है तो ऐसा निरादर अनहनीय है, आपसे पूछता हूं क्या आप ब्रह्मको जानते हैं ? याज्ञवल्क्य उत्तर देते हैं, ईशाफल्य ! मैं नहीं कह सक्ता हूं कि में ब्रह्म को जानता हूं, और न यह कह सकता हूं कि ब्रह्म को नहीं जानता हूं क्योंकि जानना और न जानना बुद्धि के धर्म हैं, मुझ अात्मा के नहीं है, मैं ब्रह्मनिष्ट पुरुपों को वारंवार प्रणाम करता हूं, मैं पूर्व- दिशाओं को और उनके देवता प्रतिष्ठा को जानता हूं जिन को आप भी जानते हैं, यदि उनके बारे में कुछ पूछना हा तो आप पूछे, शाकल्य क्रोध में श्राकर पूछते हैं, हे याज्ञ- वल्क्य ! यदि आप देवता सहित प्रतिष्टा सहित दिशाओं को जानते हैं तो बताइये प्राची दिशा में कौन देवता है ॥१९॥ मन्त्रः २० किंदेवतोऽस्यां प्राच्या दिश्यसीत्यादित्यदेवत इति स ,