पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/५१८

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५०४ बृहदारण्यकोपनिषद्-स० भावार्थ। याज्ञवल्क्य महाराज कहते हैं कि हे सात्राट् ! जाग्रत् अवस्था में मित्रों से रमण करके बहुत जगह विचर करके पुण्यजन्य सुख को और पापजन्य दुःख को भोग करके यह जीवात्मा फिर प्रत्यागमन से अपने स्थान स्वप्नावस्था के लिये दौड़ता है ॥ १७ ॥ मन्त्रः १८ तद्यथा महामत्स्य उभे कूले अनुसंचरति पूर्व चाऽपर चैवमेवाऽयं पुरुप एतानुभावन्तावनुसंचरति स्वमान्तं च बुद्धान्तं च ।। पदच्छेदः। तत् , यथा, महामत्स्यः, उभे, कूले, अनुसंचरति, पूर्वम् , च, अपरम् , च, एवम् , एव, अयन् , पुरुषः, एतौ, उभी, अन्ती, अनुसंचरति, स्वप्नान्तम् , च, बुद्धान्तम् , च ॥ अन्वय-पदार्थ। तत्-ऊपर कहे हुए विषय में । + दृष्टान्त दृष्टान्त है कि । यथा जैसे । महामत्स्यः बढ़ी मछली । पूर्वम् नदी के पूर्व । च-और । अपरम्-अपर। उभे दोनों तीरों में । अनुसंवरति फिरती रहती है । एवम् इसी प्रकार । एव-निश्चय करके । अयम् एव-यह । पुरुषः पुरुष । एत्र-निश्चय करके । एतौ- उन दोनों यानी । स्वप्नान्तम् च बुद्धान्तम् अन्तौ स्वम के और जागरण के अन्त । उभौ-दोनों स्थानों को । अनुसंच- रतियाता जाता रहता है।