अध्याय ४ ब्राह्मण ३ है, इसी को विस्तारपूर्वक दिखलाते हैं । पिता पितृसम्बन्ध से रहित होजाता है यानी जो पिता पुत्र का घनिष्ठ सम्बन्ध है उसका ज्ञान सुपुप्त पुरुप को नहीं रहता है । न पुत्र को पिता का, न पिता को पुत्र का कुछ अनुभव होता है इसी प्रकार माता मातृसम्बन्ध से रहित होती है यानी न माता को पुत्र का ज्ञान और न पुत्र को माता का ज्ञान रहता है, पुरुप को जाग्रत् अवस्था में बाद मरन के अच्छे लोकों को यानी स्वर्गादि लोकों को प्राप्त होऊँ ऐसी इच्छा रहती है पर इस अवस्था में यह भी इच्छा नहीं रहती है, देवता अदेवता होजाते हैं यानी किसी देवता का आश्रय नहीं रहता है, वेद अवेद हो जाता है यानी वेद पढ़ने की इच्छा नहीं रहती है इस अवस्था में चौर अचोर होजाता है यानी चोर को चोरी करने काज्ञान किंचि- न्मात्र भी नहीं रहता है, गर्भपातकी को अपने गर्भपातक अधर्म का ज्ञान नहीं होता है. महा नाच, पतित, चाण्डाल भी अचाण्डाल होजाता है, शूद्र के बीज करके क्षत्रियक्षेत्र में उत्पन्न हुआ पुरुष अपने जातिदोप से मुक्त हुआ रहता है, संन्यासी भी असंन्यासी हुआदीखता है, तपस्वी अतपस्वी हुआ दीखता है, पुण्य करके असम्बद्ध और पाप करके असम्बद्ध होता है, क्योंकि उस अवस्था में पुरुप हृदय के सब शोकों को पार कर जाता है यानी उसके पास कोई शक नहीं आता है ॥ २२ ॥ मन्त्र: २३ यद तन्न पश्यति पश्यन् वै तन्न पश्यति न हि द्रष्टु- दृविपरिलोपो विद्यतेऽविनाशित्वात् । न तु तहितीय- मस्ति ततोऽन्यविभक्तं यत्पश्येत् ॥ ३३
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