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पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/५५

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अध्याय १ ब्राह्मण ३ ३६ करके यह सब देवता हमारे ऊपर अवश्य अतिक्रमण करेंगे, इसलिये उस प्राणदेव उद्गाता के सामने जाकर असुर उसको वेधने की इच्छा करते भये, तब जैसे मिट्टी का ढेला पत्थर पर गिरने से चूर चूर होकर इधर उधर छितर बितर हो जाता है, उसी प्रकार असुर इधर उधर भागते हुए पृथक् पृथक् होकर नष्ट हो गये, यानी ऐसे भागे कि उनका पता न लगा, तिस कारण सब देवता पहिले जैसे जैसे प्रकाशमान थे वैसे ही प्रकाशमान होते भये, यानी असुरों के ऊपर विजयी हुए, और असुर परास्त हो गये, हे सौम्य! जो उपासक इस प्रकार जानता है उसका द्वेष करनेवाला शत्रु नष्ट हो जाता है ॥ ७॥ मन्त्र:८ ते होचुः क नु सोऽभूयो न इत्थमसक्तेत्ययमास्येऽन्त- रिति सोऽयास्य आङ्गिरसोऽङ्गानां हि रसः॥ पदच्छेदः। ते, ह, ऊचुः, क, नु, सः, अभूत् , यः, नः, इत्थम् , असक्त, इति, अयम् , आस्ये, अन्तः, इति. सः, अयास्यः, आङ्गिरसः, अङ्गानाम् , हि, रसः ॥ अन्वय-पदार्थ । + तत्पश्चात्-तिसके पीछे । तेन्वे देवता । ऊचुः ह कहते भये कि । याजिसने । नन्हमारी । इत्थम्-इस तरह । असक्त-साथ दिया है । सा-वह । क्व-कहाँ । अभूत्-है । नु इति इस प्रश्न पर । + उत्तरम्-उत्तर मिला कि । सः वही । अयम् यही प्राण है । यःमो। आस्ये अंत: मुख के अंतर । + भवति-रहता है। + चम्-और। इति इसीलिये। सम्वह प्राण । अयास्यम्मुख से उत्पन्न हुआ । कथ्यते-