पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/५७३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अध्याय ४ ब्राह्मण ४ ५५३ कामना के लिये शरीर के पछि दुःखित होगा यानी जब उसने अपने को ब्रह्म समझ लिया है और उसकी सब कामनायें दग्ध · होगई हैं तो फिर किस कामना के लिय शरीर को धारण करेगा क्योंकि इच्छा की पूर्ति के लिये ही शरीर धारण किया जाता है ॥ १२ ॥ तस्य, यस्यानुवित्तः प्रतिबुद्ध आत्मास्मिन्संदेह्ये गहने प्रविष्टः। स विश्वकृत्स हि सर्वस्य कर्ता तस्य लोकः स उ लोक एव ॥ पदच्छेदः। यस्य, अनुवित्तः, प्रतिबुद्धः, आत्मा, अस्मिन्, संदेह्ये, गहने, प्रविष्टः, सः, विश्वकृत्, सः, हि, सर्वस्य, कर्ता, लोकः, सः, उ, लोकः, एव ॥ अन्वय-पदार्थ। यस्य-जिसका। आत्मा-जीवात्मा । अस्मिन्-इसी। संदेह्य- संदिग्ध । गहने-कठिन शरीर में । प्रविष्टः अन्तर्गत होता हुा । अनुवित्तः श्रवण मननादि करके ज्ञानी है। च-और । प्रतिवुद्धः विचारवान् है । सा=बही। विश्वकृत्-सब कार्य का करनेवाला है । साबही । सर्वस्य सबका । कर्ताकर्ता है। तस्य-उसी का । लोका-यह लोक है । उ-और । सः एव वही । लोकः लोकरूप है। भावार्थ। याज्ञवल्क्य महाराज कहते हैं कि, हे जनक ! जिसका जीवात्मा इसी कठिन शरीर में अन्तर्गत होता हुआ श्रवण, मनन 1