अध्याय ४ ब्राह्मण ४ ५६१ इसी शरीर में रहते हुये हम लोग उस ब्रह्म को जान लेवें तो बहुतही अच्छी बात है और अगर उस ब्रह्म को हम लोग न जान पावें तो हमारी अज्ञानता है और बड़ी हानि है, जो लोग उस ब्रह्म को जानते हैं वे अमर होजाते हैं, और उनसे जो पृथक् अज्ञानी हैं वह दुःख उठांत हैं ॥ १४ ॥ मन्त्रः १५ यदैतमनुपश्यत्यात्मानं देवमञ्जसा । ईशानं भूत- भव्यस्य न ततो विजुगुप्सते ।। पदच्छेदः। यदा, एतम् , अनुपश्यति, आत्मानम् , देवम् , अञ्जसा, ईशानम् , भूतभव्यस्य, न, ततः, विजुगुप्सते ।। अन्वय-पदार्थ। यदा अनुभव प्राचार्य के उपदेश के पश्चात् । + साधका साधक । अअसा साक्षात् । एतम्-इस । भूतभव्यस्य- तीनों काल के । ईशानम्-स्वामी । श्रात्मानम्-प्रास्मा । देवम् देव को। पश्यति देखता है। ततः=तो । + कस्य- चित् जीयात्-किसी के जीव से । नम्नहीं । विजुगुप्सते- घृणा करना है। भावार्थ। हे राजा जनक ! जब साधक आचार्य के उपदेश के पश्चात् इस तीनों काल के स्वामी अपने आत्मदेव को देख लेता है यानी साक्षात् कर लेता है तब वह किसी जीव से घृणा नहीं करता है ॥ १५ ॥ ३६
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