2 .६४४ बृहदारण्यकोपनिषद् स० एव, अस्याः, एतत् , सः, यावत् , एपु. त्रिपु, लोकेपु, तावत् , ह, जयति, यः, अस्याः, एतत् , एवम् , पदम् . वेद ।। अन्वय-पदार्थ। भूमिः भू, मि, । अन्तरिक्षम्-थ, न्न, रि, 8, यो-दि, यौ,। इति इस प्रकार । अप्ठौ-पाठ । अक्षरारिण-ग्रसर हैं। उ-और । एतत्-सोई । अष्टानरम-पाठ अक्षर वाला। गायइयै-गायत्री का । एकम् पदम्पक यानी "तन . स, वि, तु, र्व, रे, (एयम् ) णि, यम्" " पाद है । यःो । अस्याः= इसके यानी गायत्री के । एतत्-इस एक पाद को । हम्मली प्रकार. । वेद-जानता है । यःजो। अस्या: हम गायत्री के। एतत्-इस । पदम्-एक पाद को। एवम् का हुये प्रकार । ह-भली प्रकार । वेद-जानता है । सा=बह । ए.पु-इन । त्रिपु: तीनों । लोकेपु-लोकों में।यावत्-जिनना।+प्राप्तव्यम्=प्राप्तव्य है। तावत् ह उतने सब को। जयति जीतता यानी पाता है। भावार्थ। हे शिष्य ! भूमि में दो अक्षर भ, मि, और अन्तरिक्ष में चार अक्षर अ, न्त, रि, क्ष,और द्यौ में दो अक्षर दि, और औ, इस प्रकार सब मिलाकर पाठ अक्षर होते हैं, और गायत्री के प्रथम पद में भी आठ अक्षर "तत् , स, वि, तु, , रे, ( ण्यम् ) णि, यम्" होते हैं, इस लिये गायत्री का प्रथम चरण आठ अक्षर वाला श्राठ अक्षर वाले भूमि (पृथिवी ), अन्तरिक्ष (आकाश ) और घी (स्वर्ग) के बराबर है, अब आगे इस पद की उपासना के फल को कहते हैं, जो कोई उपासक गायत्री के इस पद की इस प्रकार
- वरेण्यं विरलं कुर्याद्गायत्रीजपमाचरेदित्यापस्तम्बः ॥