बृहदारण्यकोपनिषद् स० .. . मन्त्र: १० एतमु हैव चूलो भागवित्तिर्जानकय प्रायम्थूगायान्ते- वासिन उक्त्वोवाचापि य एनई, शुप्के स्थागणी निपिञ्च- जायेरशाखाः प्ररोहेयुः पलाशानीनि ।। पदच्छेदः। एतम्, उ, इ, एत्र, चूलः, भागवित्तिः, जानकाय, पाय- स्थूणाय, अन्तवासिने, उक्त्या, उवाच, अपि, यः, पनम् , शुष्के, स्थाणी, निपिञ्चत, जायेरन् , शाग्वाः, प्ररोहे युः, पलाशानि, इति ।। अन्धय-पदार्थ भागवित्तिः भगवित्ति कापुत्र । चूलः चुना ह-पष्ट । पतम् एव-इसी होमविधि को। उक्त्वा उपदेश करके । अन्त- वासिनेभ्यपने शिष्य । जानकये जनक के पुन । यायस्थ णाय-प्रायस्थूण को। उक्त्वा उपदेश कर । उवाच-फना भया कि । यः-जो कोई यसकता। एनम् इम मन्ध को। शुष्के-सूखे । स्थाणी-पेड़ पर । निपिञ्चत् डाल देवे तो । शाखा: उसमें से दालियों। जायरन् =निकल सायें।+ च% और । पलाशानि-पत्तियां । प्ररोहेयुः इति लग जायें । भावार्थ । भगवित्ति का पुत्र चूल इसी होमविधि को अपने शिष्य जनक के पुत्र आयस्थूण के प्रति उपदेश देकर काइता भया कि जो कोई इस मन्थ को सूखे वृक्ष पर डाल देवे तो उसमें से नई डालियां निकल आयें और पत्तियाँ लग जाय ॥१०॥
पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/७४६
दिखावट