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बेकन-विचाररत्नावली।
प्रवास।

देशान्तरेषु[१] बहुविधभाषावेषादि येन न ज्ञातम्।
भ्रमता धरणीपीठे तस्य फलं जन्मनो व्यर्थम्॥
विद्यां वित्तं शिल्पं तावन्नाप्नोति मानवः सम्यक्।
यावद्व्रजति न भूमौ देशाद्देशान्तरं हृष्टः॥

पञ्चतन्त्र।

अप्रौढ वयस्क लोगों के लिए, प्रवास, उनके शिक्षण का एक भाग है; और प्रौढवयस्क लोगों के लिए, अनुभव प्राप्त करने का वह एक मार्ग है। किसी देश विशेष की भाषा में प्रवेश किए बिना जो उस देश को जाता है, उसके लिए यह न कहना चाहिए कि वह पर्य्यटन करने जाताहै, किन्तु यह कहना चाहिए कि वह पाठशाला में पढ़ने जाताहै। हम इसे उत्तम समझते हैं कि युवक जन जब प्रवास करने निकलैं, तब अपने शिक्षक अथवा गम्भीर स्वभाववाले अपने किसी नौकर को वे अपने साथ लेलेवैं। अपना साथी ऐसा होना चाहिए जो विदेश की भाषा का ज्ञान रखता हो, और वह उस देश को पहले कभी गया भी हो। इस प्रकार का मनुष्य साथ होनेसे, प्रवास करने वाले को, वह, यथा समय, यह बतलाता जायगा कि जिस देश में वे पर्यटन कररहे हैं उसमे कौन कौन वस्तु देखने योग्यहै, कौन कौन पुरुष भेट करने योग्य हैं, और कौन कौन बात सीखने योग्य है। ऐसा मनुष्य साथ न होनेसे,


  1. देशान्तर में भ्रमण करके, जिस मनुष्यने, नाना प्रकारकी भाषा और वेष इत्यादि का ज्ञान नहीं सम्पादन किया, उनका, इस भूतल पर जन्म लेनाही व्यर्थ है। जगत् में जबतक मनुष्य देश देशान्तरों का आनन्द पूर्वक अवलोकन नहीं करता तबतक विद्या, वित्त औ शिल्प कौशलका उसे सम्यक् लाभ नहीं होता।