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बेकन-विचाररत्नावली।
नई प्रथा।

पुराणमित्येव[१] न साधु सर्व।
न चापि नूनं नव मित्यवद्यम्॥
सन्तः परीक्ष्यान्यतरद्भजन्ते।
मूढः परप्रत्ययनेय बुद्धिः॥

मालविकाग्नि मित्र।

जितने प्राणी हैं, जन्म लेनेके समय, प्रथमतः सभी कुरूप होते हैं। नई नई प्रथायेंभी आरम्भमें, उसी भांति, बेढंगी होती हैं यह एक साधारण नियम हुआ; कभी कभी इसके विरुद्ध भी घटना होती है। जैसा समय आता है वैसीही प्रथायेंभी प्रचलित होजाती हैं; अतः यह कहना चाहिए कि नई नई प्रथायें जो व्यवहारमें आती हैं वे समयकी सन्तति हैं। जो पुरुष प्रथमही प्रथम अपने कुलकी मान मर्यादा बढ़ानेके कारणीभूत होते हैं उनकी जितनी प्रतिष्ठा होती है उतनी उनके अनन्तर होनेवाले उनके वंशजोंकी नहीं होती। इसी भांति प्रथमही प्रथम प्रचारमें लाई गई प्रथायें जैसी अच्छी होती हैं वैसी पीछेसे औरोंके द्वारा अनुकरणकी गई प्रथायें नहीं होती। मनुष्यकी स्वाभाविक प्रवृत्ति बुरी बातोंकी ओर अधिक होती है; अतः जो कुछ बुरा है उस विषयमें लोगोंकी वासना सदैव जागृत रहती है परन्तु जो कुछ अच्छा है उसके विषयमें, वह पहिले प्रबल होकर धीरे धीरे कम होती जाती है। नवीन रीतियोंकी भी यही दशा है।


  1. जो कुछ पुराना है सभी अच्छाहै–यह कहना ठीक नहीं; और जो कुछ नयाहै सभी बुराहै–यह कहना भी ठीक नहीं;। सत्पुरुष, परीक्षा द्वारा, अच्छे बुरेका भेद जानकर, दोमें से जो ग्राह्य होता है उसीको ग्रहण करतेहैं। परंतु मूर्खमनुष्य भेड़िया धसान होते हैं; दूसरेने जो कुछ कहा वही वह मान लेते हैं।