पृष्ठ:बेकन-विचाररत्नावली.djvu/८४

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क्रोध।

यह ध्यानमें रखना चाहिए कि धृष्ट मनुष्योंको असुविधा और संकट नहीं देख पड़ते; उनको देखनेके लिए मानो ऐसे मनुष्यों के नेत्रही नहीं होते। जो धृष्टस्वभावके हैं उनसे किसी विषयमें सलाह लेना अच्छा नहीं। उनसे काममात्र करालेना चाहिए। इसी लिए यदि धृष्टलोगोंको ठीक ठीक उपयोगमें लाना हो तो किसी काममें उनको स्वतंत्र अधिकार न देना चाहिए। उनको प्रथम स्थान न देकर द्वितीय स्थान देना चाहिए और किसीके निरीक्षणमें रखना चाहिए। कारण यह है कि किसी विषयका परामर्श करते समय भावी विघ्नोंको पहिलेहीसे देख लेना अच्छा होता है और काम करते समय यदि विघ्न बहुत बड़े न हुए तो, उनका न देखनाही अच्छा होता है।


क्रोध।

अपनेयमुदेतुमिच्छता[१] तिमिरं रोषमयं धिया पुरः।
अविभिद्य निशाकृतं तमःप्रभया नांशुमताप्युदीयते॥

किरातार्जुनीय।

स्टोइकमतवाले तत्ववेत्ता क्रोधको समूल उन्मूलन करना शौर्य का काम समझते हैं। धर्म्माधिकारियोंने कहा है "क्रोध करो परन्तु क्रोधके वशीभूत होकर पाप मत करो"। यह वचन हमको अधिक सुहावना लगता है। क्रोध को नियमित रखना चाहिए; मर्यादाके बाहर उसे न जाने देना चाहिए। क्रोध आता देख समय कुसमय का विचार न करके शीघ्रता भी न करनी चाहिये।

जो मनुष्य स्वभावही से क्रोधी होते हैं अनके क्रोधको किस प्रकार नियमित और शान्त करना चाहिए,-पहिले इस विषयमें कुछ कहैंगे।


  1. जिसकी यह इच्छा है कि हमारा अभ्युदय हो उसे पहिले विवेकद्वारा क्रोधरूपी अज्ञानका नाश: करना चाहिए। देखिए, इतना प्रचण्ड तेज: पुञ्ज सूर्य भी रात्रिके अन्धकार को अपनी प्रभासे नाश किए बिना उदय नहीं पाता।