पृष्ठ:बेकन-विचाररत्नावली.djvu/९२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(८७)
भ्रमात्मक धर्मभीरुता।


ताको मानते थे। उसके विषयमें पुरातन कवियोंने यह आख्यायिका प्रसिद्धकी थी कि वह अपने लड़के होतेही खाजाया करताथा। इसी आख्यायिकाको लक्ष्य करके प्लूटार्क ने उपरोक्त उक्ति कहीहै जिसका यह आशय है कि एतादृश सन्तानभक्षी देवताका अस्तित्व स्वीकार करने की अपेक्षा न स्वीकार करना ही अच्छा है। ईश्वरकी जितनी अधिक विडम्बना होती है भ्रमात्मक धर्मभीरु लोगोंसे प्रजाको उतनाही अधिक भय होता है। नास्तिक होनेसे भी सदसद्विचार, तत्त्वज्ञान, स्वभाविक निष्ठा, व्यवहारपरता और मान सम्भ्रम इत्यादि गुण कहीं नहीं जाते। अतएव धार्मिकता न भी हुई तो इन गुणोंके द्वारा नास्तिक मनुष्यका आचरण अनीति सङ्गत नहीं होसकता। परन्तु धर्म सम्बन्धी कुसंस्कार ग्रस्त मनुष्योंमें यह बात नहीं पाई जाती। उनके मस्तकमें जो एकबार समाया वह वज्रलेप होगया। उसमें परिवर्तन होने हीका नहीं। नास्तिकताके कारण राज्यादि बड़ी बड़ी संस्थाओंको कभी धक्का नहीं पहुँचा, कारण यह है कि नास्तिक लोग मरणानन्तर पुनर्जन्म मानतेही नहीं अतः संसारमें बहुत दिन रहनेसे उनको अपना जीवन भारभूत सा होजाता है। नास्तिकता विशेष करके उस समय बढ़ती है जिस समय देशमें पूरी पूरी शान्तता होती है। आगष्टस[१] सीजर का राज्यकाल शान्ततामय था, अतएव उसके समयमें नास्तिक मत बहुत फैला था। परन्तु भ्रमात्मक धर्मभीरुताका परिणाम अतिशय भयङ्कर होता है। उसके कारण अनेक राज्य तहस नहस होगएहैं।

अनुचित धर्मभीरुताका आदि स्थान सामान्य लोग होते हैं। इस प्रकारके कुसंस्कारका अनुष्ठान करनेसे बुद्धिमान भी मूर्खोंका अनुकरण करने लगते हैं, और एक बार उस पक्षको अङ्गीकार करके फिर यह नहीं


  1. आगस्टस सीज़र रोमका द्वितीय सार्वभौम राजा था। इसने ४४ वर्ष शान्ति पूर्वक राज्य करके ७६ वर्षके वयमें सन् १४ ई॰ मे शरीर परित्याग किया।