पृष्ठ:बेकन-विचाररत्नावली.djvu/९४

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दाम्भिक बुद्धिमत्ता।
दाम्भिक बुद्धिमत्ता।

[१] भेतव्यं न बोद्धव्यं न श्राव्यं वादिनो वचः।
झटिति प्रतिवक्तव्यं सभासु विजिगीषुणा॥

कलिविडम्बन.

किसी किसीका यह मत है कि फ्रान्सके निवासी जितना देख पड़ते हैं उससे वे अधिक बुद्धिमान् होते हैं और स्पेनके निवासी जितना होते हैं उससे वे अधिक बुद्धिमान देख पडते हैं। देशवासीजनोंके सम्बन्धमें चाहै यह बात पाई जावै चाहै न पाई जावै परन्तु मनुष्य मनुष्य के सम्बन्धमें यह अवश्यमेव पाई जाती है। एक धर्माचार्यका कथन है कि,-"अनेक लोग सदाचार दिखलानेका मिष मात्र करते हैं परन्तु यथार्थतया उनमें कुछ भी भक्तिभाव नहीं होता"। इसी प्रकार ऐसे अनेक लोग हैं जो बुद्धिमत्ता और चतुरताका अतिशय हाव भाव दिखलाते हैं। वे कोई काम नहीं करते; किया भी तो बहुत थोड़ा और सो भी बड़ी गम्भीरताके साथ। जिस विषयको वे नहीं जानते उसका उनको पूर्ण ज्ञान है-इस बातको सिद्ध करनेके लिए "ढोलके भीतर पोल" के उपमाधारी ये लोग ऐसी ऐसी युक्तियां लड़ाते हैं जिनको देख सद्विचारयुक्त मनुष्यको हँसी आती है, यही नहीं, किन्तु तत्सम्बन्धी एक प्रहसन भी लिखने की इच्छा होती है। कोई कोई इतने मितभाषी और अन्तर्ग्रन्थि स्वभावके होते हैं कि स्पष्टतया वह कभी कुछ भी नहीं बोलते। दोचार बात कहते हैं और शेष सब मनका मनहीमें रहने देते हैं, स्पष्ट नहीं कहते। उस समय वे यह भाव। व्यक्त करते हैं कि जानते तो हैं हम परन्तु बतलावेंगे नहीं। जो कुछ


  1. यदि यह इच्छा हो कि सभामें हम विजयी हों, तो डरना न चाहिए, प्रकृत विषयको समझनेका यत्न भी न करना चाहिए; और दूसरेकी बातको सुनना भी न चाहिए; बस, उस समय जो कुछ मुखसे निकलै वह, पूछे जाने पर बराबर कहतेही चलेजाना चाहिए।