पृष्ठ:बौद्ध धर्म-दर्शन.pdf/६५०

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पौर-दर्शन संसार तथा निर्वाण प्रकृतितः शान्त, एक रस है, इससे उन समस्त रष्टियों का समाधान होता है, जिन्हें भगवान् ने अध्याकरणीय कहा था। तपातप्रवचन काराव वादी कहता है कि आपने उपयुक्त विवेचन से निर्वाण का भी प्रतिषेध कर दिया। ऐसी स्थिति में निर्वाण के अधिगम के लिए. सत्वों के अनन्त चरितों का अनुरोध कर भावान् ने जो धर्म की देशना की है वह सब व्यर्थ होगी। चन्द्रकीति कहते हैं कि यदि धर्म स्वभावतः हों, और कुछ सत्व उसके श्रोता हो, भगवान् बुद्ध नाम का कोई देशिता हो तो अवश्य श्राप का कहना ठीक हो; किन्तु रहस्य यह है कि इन समस्त निमित्तो का उपलम्भ नहीं होता, जिससे यह ज्ञात हो सके कि देव-मनुष्यों को किसी भगवान् ने सांक्लेशिक, व्यावदानिक का उपदेश किया था। श्राचार्य कहते हैं कि निर्वाण प्रपंचोपशम तथा शिव है, क्योंकि उसमें--- सर्वप्रपनोपरामः-समस्त निमित्त-प्रपंचों की प्रवृत्ति है। शिव-शिव है, क्योंकि निर्वाण का यह उपशम प्रकृति से ही शान्त है, अथवा वाणी की अप्रवृत्ति से प्रपंचोपशम है, और चित्त की अप्रवृत्ति से शिव है; अथवा क्लेशों की अप्रवृत्ति से प्रपंचोपशम है, तथा जन्म की प्रवृत्ति से शिव है; अथवा क्लेश के प्रहाण से प्रपंचोपशम है, और निरवशेष वासनाओं के प्रहाण से शिव है; अथवा चेय की अनुपलब्धि से प्रपंचोपशम है, और ज्ञान की अनुपलब्धि से शिव है। यतः भगवान् बुद्ध उपयुक्त सर्व प्रपंचोपशम एवं शान्तरूप निर्वाण में, अाकाश में राजहंस के समान स्थित है, यतः किसी निमित्त को उपलं नहीं है, अतः कहीं किसी के लिए कोई धर्म बुद्ध के द्वारा उपदिष्ट नहीं हुश्रा | चन्द्रकीर्ति कहते हैं कि बुद्ध अपने पुण्य और ज्ञान के संभार से निरालंब में स्थित है। उन्होंने जिस रात्रि में बोधि प्राप्त की और जिस रात्रि में निर्वाण लाभ किया, इस बीच एक अक्षर का भी व्याहार नहीं किया । प्रश्न है कि बुद्ध ने जब कुछ देशना नहीं की तो ये विचित्र विविध प्रवचन क्या है। चन्द्रकीर्ति कहते हैं कि ये प्रवचन अविद्या-निद्रा में लीन तथा स्वप्न देखते हुए मनुष्यों के अपने ही विभिन्न विकल्पों के उदय है। तथागतपरीक्षा में तथागत की प्रतिबिम्बभूतता दिखायी गयी है, अतः तथागत ने कोई धर्म देशना नहीं की। धर्म-देशना के अभाव में निर्वाण मी सिद्ध नहीं होता । भगवान् ने गाथा में कहा है कि लोकनाथ ने निर्वाण के रूप में अनिर्वाण की ही देशना दी। वस्तुतः भगवान् का यह कार्य आकाश के द्वारा डाली गयी गाँठ का प्रकाश के द्वारा मोचन करने के समान है। श्रनिर्वाणं हि निर्वाणं लोकनाथेन देशितम् । अाकाशेन कृतो प्रन्थिराकाशेनैव मोचितः ।। (म. का. व. पृ.५४०)