। ८६ ' भट्ट- निधावली ' हैं । जिसने जीवन को · सुकर्म और भलाई करने में बिताया उसका दीर्घायु होना भी बड़े श्रानन्द की बात है और संसार के बड़े उपकार का है । पर कलियुग का कुछ ऐसा नियम है कि- "पापी चिरायुः सुकृती गतायु"। '. पापी बहुत दिनों जीते हैं, सुकृती जल्द उठ जाते हैं | चिरायु और अल्पायु दोनों की एक हद्द है; २५-३०. या ४० के भीतर उठ गये, अल्पायु कहलाये;८० या ६० पहुँचे, चिरायु हुये। अत्यन्त अल्पायु होना नितान्त अभाग्य है। अन्धे बहिरे अपाहिज हो ८० या ६० पहुँचे, स्मरण-शक्ति जाती रही, अकिल या समझ न रही, कहा कुछ और जाता है समझता कुछ और है। इस बुरी दशा से १०० वर्ष जिया भी तो कौन-सी भाग्यगाना उसकी है। हो, अविकलेन्द्रिय दीर्घ जीवन अलबत्ता प्रशंसनीय है । वेटो में जहाँ दीर्घ जीवन की आशिष-प्रार्थना की गई है,वहाँ श्रावकलेन्द्रिय दीर्घ जीवन मांगा गया है। तद्यथा- - 'शतं जीवेम शरदः शतं शणुयाम शरदः शतं पश्येम शरदः शत भग्रवाम शरदः शतबदीना स्याम शरदः शतं भूयश्च शरदः शतान् । - मैं सौ वर्ष जीऊँ, सौ वर्ष तक सुनता रहूँ, सौ वर्ष तक देखता रहूँ, सौ वर्ष वोलता रहूँ सौ वर्ष नक दीन न हूँ, पुनः ऐसाही सौ वर्ष और कटे इत्यादि । वेदोक्त ऐसा जीवन बई भाग्यमानों का होता है जो अब इस समय लाख करोड़ में कदानित्त एक भा इस तरह से नहीं मिलते' जो मब भांति अविकलेन्द्रिय हो इतने दिन जिये हो । इसी से ६०.६५ या ७० जीवन सर तरह पर अच्छा है और उतने समय शानेन्द्रिय और कमेन्द्रिय दोनों प्रौद्ध और पुष्ट बनी रहती है। अपूर्व पुण्यशाला भाग्यवान् ऐसा ही को रहना चाहिये। । । हम ऊपर की प्रायः है, मनुष्य मान में दीघे जीवन की इच्छा । पातिक । इसशिये कि इम बड़ी उमर तक भी फर संसार के अनेक
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