पृष्ठ:भट्ट निबंधावली भाग 2.djvu/१०७

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वायु. मछली आदि जल-चर जन्तु जिस तरह अनन्त अगाध समुद्र मे रहते हैं वैसे ही हम विपुल वसुन्धस के ऊपर इसी विशाल वायु सागर मे रहते हैं । मृदु-मन्द-गामी समीरन वृक्षों के पत्तों को कॅपाता थके मान्दे मनुष्य को शीतल और पुलकित गात्र करता हुआ चलता है तब हम उसकी गति का अनुमान करते हैं किन्तु प्रत्यक्ष नही कर सकते कि वायु क्या पदार्थ है ? जब यह घोर गम्भीर गर्जन से दिग्मण्डल को पूरित करता अपने प्रवल आघात से ऊँचे ऊँचे पेड़ो को उखाड़ डालता है उस समय हम वायु के केवल अस्तित्व मात्र से नहीं वरन् इसकी असाधारण शक्ति से परिचित होते हैं। संस्कृत दर्शनकार शब्द गुण आकाश मान गये हैं किन्तु यूरोप के विज्ञान-वेत्ताओं ने परीक्षा द्वारा प्रमाणित कर दिया है कि शब्द अाकाश का गुण नहीं है किन्तु शब्द भी वायु का गुण है। एक बोतल जिसकी हवा वायु-निष्काशन-यन्त्र द्वारा निकाल ली गई हो उसमे कंकड़ भर हिलानो तो शब्द न होगा। इससे यह बात स्पष्ट है कि बोतल के भीतर आकाश के होते भी जो शब्द नहीं होता तो शब्द वायु का गुण है। केवल इतना ही नहीं कि वायु जगत् का प्राण प्रद है; अमर में "जगत्प्राण समीरणः" ऐसा वायु का नाम लिखा है अपिच इसमे और अनेक गुण हैं । यह अोदे को सूखा कर देता है, उत्तम गन्ध वहन कर प्राण इन्द्रिय को तृप्त करता है "सुरभिर्घाणतर्पणः यह सुगन्धि का नाम वायु ही के कारण पड़ा है। इस भूपृष्ठ पर ऐसा कोई स्थान नहीं है जहाँ वायु न हो, अतल स्पर्श सागर,अन्धकार पूरित शून्य गुफा, अत्युच्च पर्वत शृङ्ग सब ठौर इस का अस्तित्व है। भूपृष्ठ से चालीस मील अपर तक वायु का संचार अच्छी तरह अनुभव किया गया है । ज्यों ज्यों ऊँचे स्थान में जाइये त्यों त्यों वायु पतला होता जायगा यहाँ तक कि बहुत ऊँचे स्थान मे जैसा हिमालय के अत्युच्च शिखर पर इतनी कम हवा है कि हम वहाँ श्वास नहीं ले सकते । सूर्य सिद्धान्त मे लिखा है समस्त राशि- चक्र प्रवह वायु द्वारा आकृष्ट हो अपनी अपनी कक्षा मे निरन्तर भ्रमण 86