११-भक्ति भक्ति यह शब्द भज धातु से बना है जिसके अर्थ हे सेवा करना । सेवा से प्रयोजन यहाँ वैसी सेवा का नही है जैसा नौकर अपने मालिक की सेवा कोई निश्चित वेतन प्रति मास या प्रति वर्प ले करता है किन्तु उन तरह की सेवा जिसे सेवक प्रेम और विश्वास के उद्गार से पूरित हो अपनी सेवा का बिना कुछ बदला चुकाये या वेतन इत्यादि की इच्छा विना रख के करे । यद्यपि भक्ति, श्रद्धा, रुचि, लौ, लगन प्यार, इश्क आदि कई शब्द एक ही अर्थ के बोधक है किन्तु भक्ति का दरजा स्व मे बढ कर है । भक्ति से जो भाव हृदयगम होता है अर्थात् भक्त को अपने सेन्य या प्रभु पर जिसकी भक्ति भावना में वह लगा है जैमा भाव मन मे उदय होता है वैसा श्रद्धा आदि शब्दो से नहीं होता। इसका स्वाद ही निराला है यह मानो गृग का लड्डु है । जो कुछ अानन्द और सन्तोष तथा शान्ति चित्त मे पाय जगह कर लेती है उस्का केवल अनुभव मात्र चित्त को होता है जिहा द्वारा उसका प्रकाश हो ही नहीं सकता। इसलिये कि मन जिसको अनुभव होता है उसको बोलने की ताकत नहीं है और मुख जिसके द्वारा शब्द गई जाते है उसको अनुभव करने की सामर्थि नहीं है। यद्यपि भय या लोभ आदि कारणों से भी भक्ति या श्रद्धा आ जाती है पर हमारा मतलर यहाँ उस तरह की भक्ति से नहीं है। सची भक्ति वही है जो निस्स्वाय है और यह पवित्र भाव या अनुराग वही ठहर सत्ता है जहाँ स्वार्थ की मन्धि भी न हो । श्रापे को बिलकुल मिटाय कायिक, मानसिक, बाचिक. जिन्नी चेटा है सब उसी अपने प्रभु के लिये की जाय जिनकी यह भक्ति करता है और इसी कायिक, मानसिक, बाचिक आदि मानि-भान को पुदी-शुदी चशानी को ९ हिल्लों में बाँट गाटिल्य अादि हमारे
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