पृष्ठ:भट्ट निबंधावली भाग 2.djvu/६५

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चढती जवानी की उमंग न पाया तो उसके पुत्र पर आ उतरता है। पुत्र पर भी न आया तो नाती या पोनो पर तो अवश्य ही आता है, कभी व्यर्थ जाता ही नहीं। इसी से पुगने लोगों की यह कहावत है “बालै पुत्र पिता के धर्मे" समझदार, शान्तशील, सुकृती पिता भी अनेक क्लेश और संकट सहते कुपथ से बचते फेंक फूंक कर पांव धरते हैं जिसमे उनके सन्तान पर उनके सुकृत का फल आ उतरे और वे फलै फूलै । तात्पर्य यह कि चढती उमर नई जवानी का जोश अद्भुत होता है जिसका कुछ थोड़ा सा कई एक ढग का चित्र हमने यहाँ पर खीच कर कई तरह के दृश्यों में दिखाया है। मनुष्य के जीवन में यह वह वयक्रम है जो तमाम जिन्दगी भर के बनने बिगड़ने की वीजारोपणस्थली है। इसी से कहा भी है "जो ना है है बीस पचीसा, सो का है है तीसा -यह समय जिसमे मनुष्य के जीवन मे होनहार शुभ अशुभ परिणाम का अकुर पैदा होता है जब इन्द्रियाँ सव अविकल रहती हैं दिन प्रति दिन मानसिक शक्तियो का प्रकाश बढ़ता ही जाता है, जीवन की अनेक ऊँची नीची दशा नहीं झेले रहते इससे उनके अनुभव में कचाहट रहती है जिससे उनका विचार बहुधा दोष दूषित रहता है चालीस के ऊपर पहुंचते पहुंचते यह दोप भी निकल जाता है और सब तरह की पूर्णता पा जाती है। काम करने का यही समय है, इसलिये कि अब इनकी हर एक बात मे गुरुता विचार शक्ति, (डिशीशन) मे पुष्टता श्रा जाती है चरित्र दूषित होने का खटका भी जाता रहता है। जिसने इस समय को खो दिया, अपने लिये तथा समाज के लिये कोई ऐसी बात न कर गुज़ारा जिससे प्रकृति के बड़े रोजनामचे में उसका नाम दर्ज किया जा सके उस पुरुष का जीवन व्यर्थ है। उसने मानो अपने ही को ठगा आगे चल उससे कोई काम काहे को बन पड़ेगा क्योंकि उप- रान्त आगे बढने की कौन अाशा रही जब कि शारीरिक बल मानसिक शक्ति पौरुषेय गुणो मे नित्य घटाव ही होता जाता है। सच पूछो तो जो कुछ करने का समय है और जिन्होने कुछ किया है वे इसी तीस