पृष्ठ:भट्ट निबंधावली भाग 2.djvu/६९

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६६ 2 चित्त और चनु का घनिष्ट सम्बन्ध को लोग हिए की आँख कहते हैं। सूरदास ने एक विनय मे कहा भी है- "सूर कहा कहै दुविध धरो बिना मोल को चेरो। भरोसो दृढ इन चरणन केरो'। भगवान् न करे किसी की हिए की फूटे, जिसके फूटने से फिर किसी तरह निस्तार नही है। बाल्य-विवाह के शौकीनों की हिए की फूटी हैं, दुधमुहो को व्याहने से सरासर नुकसान है, देश का देश धूर मे मिल गया, फिर भी ज्ञान नहीं होता। हमारा मन यदि किसी एक बात पर एकाग्र रहे तो हजारो चीज़े देखकर भी उनका कुछ स्मरण नही रखते, अतः निश्चय हुआ कि हृदय की आँख इस चर्म चक्षु से कितनी अधिक प्रबल है। इससे हिए की आँख से देखना ही देखना है। और इस तरह का देखना जो जानते हैं उन्ही का ठीक-ठीक देखना है । चतुर सयाने, जिन्हें यह हुनर याद है, बाहरी आकार, चेष्टा और बोल चाल से तुम्हारे मन में क्या है, उसे चट जान लेते हैं। "अकारैरिगितैर्गस्या चेष्टया भाषणेनच । नेत्रवविकारेश्च लक्ष्यतेऽन्तर्गत मनः॥ ऐसो को हम मन-माणिक की कदर करने वाले और पहिचान रखने वाले जौहरी कहेगे। मन को पवित्र या अपवित्र करने का द्वार नेत्र है। किसी पुण्याश्रम, तपाभूमि, गिरि, नदी, निर्भर आदि तीर्थ विशेष मे जाकर वहाँ के प्राकृतिक पवित्र दृश्यो को देखते ही या किसी जीवनमुक्त महापुरुष के दर्शन से मन यकवारगी बदल जाता है। पापी से पापी ठगो और डकैतों का हाल देखा और सुना गया हैं कि ऐसे लोग महात्माओं के पवित्र स्थानो मे जाते ही या किसी महात्मा का दर्शन कर अपने पाप-कर्म से छुट ऋषि-तुल्य शान्त स्वभाव के हो गये हैं। लोग मन को व्यर्थ ही चञ्चल प्रसिद्ध किये हैं। चञ्चलता नेत्र करते हैं, फंसता है बेचारा निरपराधी चित्तः- 65 .