७४ भट्ट निवन्धावली छूट जाता है, दैवयोग से प्रेमी मिल गया तो अच्छा नहीं तो जीने से भी हाथ धो बैठता है; सच है :- प्रेम वनिज कीन्हों हुतो नेह नफा जिय जानि । अब प्यारे जिय की परी प्रान पुंजी मे हानि ॥ अपनी दशा का देखना मनुष्य के लिये यावत् सुधार और मन को अनोखी शान्ति का हेतु है। जो नाक निगोड़ी के कट जाने का भय छोड़ अपनी दशा देख कर काम करते हैं वे सदा सुखी रहते हैं और कभी सकट मे नही पडते। सर्वथा स्वाहितमाचरणीय किकरिष्यति जनो वहु जल्पः । विद्यते न खलु कोपि उपायः सर्वलोकपरितोपकरो यः॥ अनेक प्रचलित कुसस्कारों में हमारे समाज के बीच नाक कट जाने का भय भी ऐसी बड़ी बुराई है कि इससे न जानिये कितने घराने घूर में मिल गये। जब तक हम अपनी दशा न देख इसी तरह नाक बढाते रहेंगे तब तक कभी किसी लायक न होंगे। हम अपने से कम सुखी लोगो को देख उनकी दशा से अपनी दशा मे तारतम्य देखते रहें तो दुख कभी पास न फटकै और चित्त सदा के लिये शान्ति देवी का पवित्र मन्दिर बन जाय । हमने मन और नेत्र का सम्बन्ध दिखलाया इसमें जो कुछ त्रुटि रह गई हा पाठक जन सम्हाल ले । -अप्रैल; १८६०
पृष्ठ:भट्ट निबंधावली भाग 2.djvu/७२
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