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पृष्ठ:भट्ट निबंधावली भाग 2.djvu/८७

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स्थिर अध्यवसाय या दृढ़ता ८७ हवा के झकोर से छिन्न-भिन्न हुये मेघ के समान मैं इसी पर्वत पर जहाँ तपस्या कर रहा हूँ, या तो विलाय जाऊँगा या इन्द्र को प्रसन्न कर उनसे अस्त्र शस्त्र पाय इस कलंक को दूर करूँगा कि युद्ध मे शत्रुओं से जुश्रा मे हारे हुए राज्य को न लौटा सका। और भी- "वंशलश्मीमनुसृत्य समुच्छेदेन बिद्विपाम् निर्वाणमपि मन्यहमन्तराप जयश्रियः" शत्रुओ का नाश कर वश-परम्परा-प्राप्त राज्य लक्ष्मी को बिना पाये मोक्ष-सुख को भी मैं जय-श्री की प्राप्ति का एक विघ्न मानता हूँ। मोक्ष पद जो सबसे बढ कर है वह अर्जन के दृढ निश्चय मे जय के मुकाविले तुच्छ था तव ससार के क्षुद्र-सुखो की क्या गणना थी, इत्यादि कितने और भी उदाहरण इसके पाये जाते हैं। अक्टूबर, १८६१