पृष्ठ:भामिनी विलास.djvu/१०४

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[शृंगार-
भामिनीविलासः।

गरिमाणमर्पयित्वा लघिमानं कुचतटात्कुरंगदृशाम्।
स्वीकुर्वते नमस्ते यूनां धैर्याय निर्विवेकाय॥४६॥

गुरुताको देकर मृगनयनीके कुचप्रांतसे लघुत्वको स्वीकार करनेवाले तरुणापुरुषोंके अविवेकी धैर्यको नमस्कार है! (इसमें 'परिवृत्ति' अलंकार है, जहां बहुत देने से भी कम प्राप्ति है वहां यह अलंकार होता है)

न्यंचति वयसि प्रथमे समुदंचति तरुणिमर्नितदा सुदृशः।
दधति स्म मधुरिमाणं वाचो गतयश्च विभ्रमाश्च भृशम्॥४७॥

सुलोचनी (भामिनी) की बाल्यावस्थाके गमन और तारूण्यताके आगमन समयमें वाणी, गति और विलास परम माधुर्य्यताको प्राप्त होते हैं।

निस्सीमशोभासौभाग्यं नतांग्या नयनद्वयम्।
अन्योन्यालोकनानंदविरहादिव चंचलम्॥४८॥

जिनकी शोभा के सौभाग्य की सीमा ही नहीं ऐसे, नतगात्री (नायिका) के युगुलनयन, मानौं एक दूसरे को न देख सकने के कारण चंचल हो रहे हैं (नयनों के चंचल होने का कारण परस्परावलोकन का विरह कहा इससे 'उत्प्रेक्षा' अलंकार हुआ)