पृष्ठ:भामिनी विलास.djvu/१६०

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[शृंगार-
भामिनीविलासः।

मनोरथान्। दयिता दयिताननांबुजं दरमीलन्नयना निरीक्षते॥१८२॥

नायक के समीप ही सोई हुई समर्थहीना कामिनी, मनोर्थ सुफल करने के लिए, किंचित नेत्रों को मुकुलित करती हुई, पतिके मुखारविंद को देखती है (लज्जा से नयन भली भांति नहीं खोलती और पति की ओर धीरे धीरे अवलोकन करके संभोगेच्छा प्रकट करती है इससे 'मध्या' नायिका जानना)

वदनारविंदसौरभलोभादिंदिंदिरेषु निपतत्सु।
मय्यधरार्थिनि सुदृशो दृशो जयंत्यतिरुषा परुषाः॥१८३॥

इति श्रीमत्पंडितराज जगन्नाथविरचिते भामिनी विलासे शृंगारो नाम द्वितीयो विलासः॥२॥

मुखारविन्दकी सौरभके लोभसे भ्रमरोंके (ओष्ठों पै) गिरते मुझ अधरकी याचना करनेवाले अर्थात् चुम्बनार्थी पै, रोषसे कुटिल हुए सुलोचनीके कटाक्ष जय पावैं! (एक तो मुखके सुगंधके लोभी भ्रमर ही कष्ट दे रहे थे तिस पै नायिकने अधरचुंबन चाहा फिर भला नायिकाकी दृष्टि वक्र क्यों न होवे? परंतु कामुकोंको इस प्रकारकी परुष विलोकनिभी सुखदात्री होती है इसी से नायिक उस चितवनि का