पृष्ठ:भामिनी विलास.djvu/१७६

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[शांत-
भामिनीविलासः।

वज्रं पापमहीभृतां भवगदोद्रेकस्य सिद्धौषधं
मिथ्याज्ञाननिशाविशालतमसस्तिग्मांशुबिंबो-
दशः। क्रूरक्लेशमहीरुहामुरुतरज्वालाजटालः
शिखी द्वारं निवृतिसझनो विजयते कृष्णेति
वर्णद्वयम्॥१५॥

पापपर्वतको वज्र, संसारसम्बन्धी महान रोगकी सिद्ध औपध, मिथ्याज्ञानरूपी रात्रि के विशाल अंधकारको सूर्यविवोदय, प्रचंडक्लेशरूपी वृक्षको अत्युग्र ज्वालासे प्रज्वलित अमि, मोक्षमंदिरका द्वार 'कृष्ण' ऐसे ये वर्णद्वय विजय पावै।

रे चेतः कथयामि ते हितमिदं वृंदावने चारयन्
वृंदं कोऽपि गवां नवांबुदनिभो बंधुन कार्य-
स्त्वया। सौंदर्यामृतमुद्रिद्भिरभितः संमोह्य
मंदस्मितैरेप त्वां तव वल्लभांश्च विषयानाशु
क्षयं नेष्यति॥१६॥

रे मन! यह मैं तेरे हितकी कहता हूं, वृंदावन में गोवृन्दौं को चरानेवाले नूतनमेघवर्ण, (श्रीकृष्ण) को तू स्नेही कर, वह, सौन्दर्यामृतको आसमंताद्भागमें बरसानेवाली (अपनी) मंदमुसुकानिसे, तुझे मोहित करके तेरी प्रिय विषयवासनाओं को शीघ्रही नाश करेगा।

अव्याख्येयां वितरति परां प्रीतिमंतर्निमग्ना
कंठे लग्ना हरति नितरां यांतरध्वांतजालम्।