अस्ति मम शिरसि सततं नंदकुमारः प्रभुः परमः॥३२॥
पृथ्वी पै धाय धाय मैं क्यों हृदयको संतापित करता हूं? मेरे (तो) शिर (हो) पै परम प्रभु श्रीकृष्णचन्द्र संतत निवास करते हैं।
रे रे मनो मम मनोमवशासनस्य पादांबुजद्धयमनारतमानमंतम्।
किं मां निपातयसि संसृतिगर्तमध्ये नैतावता तव गमिष्यति पुत्रशोकः॥३३॥
रे मन्मम! मनोभव [मन से है उत्पत्ति जिसकी अर्थात् कामदेव] के शासन करनेवाले शंकर के युगुल चरण कमलौं को निरंतर नमस्कार करनेवाले मुझे (तू) क्यों संसाररूपी गर्त [गढ़े] में डालता है? ऐसा करने से तेरा पुत्र का शोक न जावैगा (काम की उत्पति मनसे सूचित करके उसे मन का पुत्र ठहराया, इस हेतु शंकर से स्वभाव ही मन की शत्रुता होनी चाहिए क्योंकि काम को शंकर ने दग्ध किया है। तात्पर्य यह कि सदाशिवसे तो तेरा वश चलता ही नहीं इस से तू उनके भक्त को दुःख देता है परंतु इस प्रकार पलटा लेने से पुत्र का शोक न जायगा)
मरकतमणिमेदिनीधरो वा तरुणतरस्तरुरेष वा